संत धर्मदास और कबीर साहेब की कथा | Sant Dharam Das aur Unke Guru Kabir Saheb ki katha

कलयुग में भी कबीर परमेश्वर ने बहुत सी महान आत्माओं का कल्याण किया है जिनमे से एक संत धर्मदास जी हैं। संत धर्मदास जो आगे चलकर कबीर साहब के महान और प्रिय शिष्य बने। हम आज आपको संत धर्मदास के बारे में कहानी सुनाएँगे कि किस प्रकार संत धर्मदास जी कबीर साहेब से प्रभावित हुए और अपने गुरुदेव रूपानंद जी के द्वारा प्रदान किये गए भक्ति साधना के मार्ग को त्यागकर भगवान् कबीर साहब के बताये मार्ग को अपनाया।
संत धर्मदास जी कौन थे ?
संत धर्मदास जी का जन्म बनिया जाति के धनी परिवार में बांधवगढ़ नामक गॉंव में हुआ था जो वर्तमान समय में मध्य प्रदेश राज्य में स्थित है। संत धर्मदास जी की बचपन से ही भक्ति और साधना में रूचि थी। उनकी इस रूचि को देखने हुए उनके माता पिता ने उन्हें भक्ति और साधना के सही मार्गदर्शन के लिए संत धर्मदास जी को गुरुदेव रूपानंद जी से दीक्षा लेने की सलाह दी। संत धर्मदास जी ने अपने माता पिता की आज्ञा का पालन किया और महात्मा रूपानंद जी को अपना गुरु बनाकर, उनसे दीक्षा ली। दीक्षा प्राप्त करने के दौरान संत धर्मदास जी का नियम बन गया था कि प्रतिदिन श्रीमद्भागवत गीता का पाठ करने लगे।
संत धर्मदास जी के गुरु कौन थे ?
संत धर्मदास जी ने सबसे पहले अपने माता-पिता के कहने पर महात्मा रूपानंद जी को अपना गुरु बनाया थे लेकिन बाद में कबीर साहेब जी से मिलने के बाद उन्होंने अपने पिछले गुरु जी को त्याग कर कबीर साहेब जी को अपना गुरु बनाया था और आजीवन कबीर साहेब जी को ही अपना गुरु बना कर रखा। अब आपको ये पता लग गया होगा कि संत धर्मदास जी के गुरू का नाम कबीर साहेब जी था।

संत धर्मदास और परमेश्वर कबीर साहेब में पहली भेंट
एक दिन की बात है जब संत धर्मदास जी अपने दिनचर्या के अनुसार भक्ति कर रहे थे तो उनके सामने परमेश्वर कबीर साहेब जी भी आकार बैठ गए और संत धर्मदास जी के भक्ति और साधना को गौर से देखे जा रहे थे। यह देख कर धर्मदास जी बहुत खुश हो रहे थे की कोई उनकी भक्ति के तौर तरिके को इतनी लगन से देख रहा है, इसका मतलब है कि वह अवशय ही उनके इस भक्ति भाव से प्रभावित हुआ है।
यह देख कर संत धर्मदास जी ने अपना मंत्रोच्चारण ऊँचे स्वर में करना शुरू कर दिया और मन ही मन सोचने लगे की यह पुरुष या महात्मा मुझसे जरूर मेरे भक्ति ज्ञान के बारे में पूछेंगे। देखते ही देखते वह महात्मा, संत धर्मदास जी के पास आकर बैठ गए और संत धर्मदास जी भक्ति का आनंद लेने लगे।
संत धर्मदास और परमेश्वर कबीर साहेब में साक्षात्कार
जैसे ही धर्मदास जी ने अपनी दिनचर्या पूरी की और चलने लगे तो उन महात्मा जी ने संत धर्मदास जी से प्रश्न करते हुए कहा की हे महान आत्मा आप कौन हैं? किस जाति से सम्बन्ध रखते हैं?
आपका क्या धर्म है? आप कहाँ से आये हैं कृपया मुझे अपना परिचय दें।
यह सुनकर धर्मदास जी मन ही मन मुस्कुराने लगे कि अवशय ही ये मेरी इस भक्ति से प्रभावित हुए हैं और शायद ये मुझसे इसलिए यह सब पूछ रहे हैं। जबाब में संत धर्मदास जी कहते हैं कि हे महात्मा मेरे नाम धर्मदास है और मैं हिन्दू धर्म के वेश्य परिवार से हूँ। मेरा परिवार बहुत ही धनी है।
मैंने अपने गुरु रूपदास जी से भक्ति की दीक्षा ली है और अपने गुरु के द्वारा दी गई शिक्षा में पारंगत हूँ। मुझे सभी वेदों और शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान है।
धर्मदास जी की बातें सुनकर कबीर साहब ने फिर से प्रश्न किया और कहा कि धर्मदास अभी थोड़ी देर पहले तुम जिस पुस्तक या किताब को जोर-जोर से पढ़ रहे थे, उसे तुम क्या कहते हो मेरा मतलब है कि उस पुस्तक का क्या नाम है?
धर्मदास जी उत्तर देते हुए कहते हैं कि यह पुस्तक हमारा पवित्र ग्रन्थ श्रीमद्भागवत गीता है जिसमे श्री कृष्ण के द्वारा अर्जुन को दिए गए गीता के ज्ञान का वर्णन है। इसे हम बहुत ही पवित्र मानते हैं
इसे छूने से पहले हम स्नान और पूजा करते हैं तभी इसे हाथ लगते हैं। खैर आप शायद इसके बारे में नहीं जानते।
परमेश्वर कबीर साहेब जी ने मुस्कुराते हुए धर्मदास जी से एक और सवाल करते हुए कहते हैं कि आप किसके नाम का जाप करते हैं ?
प्रत्युत्तर में धर्मदास जी कहते हैं कि मैं ओम नमः शिवाय, ओम भगवते वासुदेवाये नमः, गायत्री मंत्र, हरे कृष्ण , कृष्ण कृष्ण हरे आदि मन्त्रों का उच्चारण यानि जाप दिन में 108 बार करता हूँ।
कबीर साहेब अपने अगले प्रश्न में पूछते हैं कि धर्मदास जी थोड़ी देर पहले आपने मुझसे कहा था कि ये पुस्तकआपका पवित्र ग्रन्थ है जिसमे गीता का ज्ञान है, यह ज्ञान किसने दिया था क्या आपको पता है?
धर्मदास जी थोड़ा सा क्रोधित हुए बोले की मुझे अपने ग्रन्थ जिसका मैं प्रतिदिन अनुसरण करता हूँ उसके बारे में मुझे ज्ञान नहीं है? इसमें श्री कृष्ण जी जो की साक्षात् श्री विष्णु जी का रूप है उन्होंने अर्जुन को महाभारत के युद्ध में गीता का ज्ञान दिया था जब श्री अर्जुन ने रणभूमि में अपने अस्त्र-शास्त्र को रख कर युद्ध करने से मना कर दिया था और कहने लगे थे की वे केवल राज-पाठ पाने के लिए अपने भाई-बंधुओं से युद्ध नहीं करेंगे यह तो धर्म के विरुद्ध है। तब श्री कृष्ण ने उन्हें युद्ध करने हेतु गीता का ज्ञान दिया था।
कबीर साहब धर्मदास जी से पूछते हैं की आप प्रतिदिन पवित्र गीता का अनुसरण करते हैं तो फिर आप यह भी जानते होंगे कि आपके पूज्य देव श्री कृष्ण जी जिसे आप श्री विष्णु का रूप कहते हैं क्या उन्होंने गीता को भक्ति का ज्ञान बताया है या गीता को पढ़ने से भक्ति होती है ऐसा जिकर किया है ?
सही मार्ग दिखाने के लिए किसान के पुत्र की कहानी
हे धर्मदास मैं आपको एक छोटी सी कथा सुनाता हूँ आपको मुझे उसका निष्कर्ष बताना होगा धर्मदास जी कहते हैं ठीक है –
एक बार एक किसान था जिसके पास धन की कोई कमी नहीं थी लेकिन उसके पास संतान का सुख नहीं था। जैसे तैसे वृद्धावस्था तक उसे पुत्र संतान की प्राप्ति हो गई।
वह किसान हर दिन चिंता में डूबा रहता कि उसका पुत्र जो की अभी छोटा है वह बड़ा होकर किस प्रकार कृषि करेगा यानि क्या वह एक सफल किसान बन पायेगा या नहीं इसी सोच के साथ उस किसान ने एक किताब में अपने कृषि के अनुभव को लिखा और कहा की पुत्र यह पुस्तक अपने पास सभाल कर रखना क्योकि इसमें मैंने अपने कृषि करने के अनुभव को लिखा है इसे तुम जरूर पढ़ना और इसके हिसाब से ही खेती करना।
पुत्र ने वह किताब अपने पास रख ली और रात दिन उस किताब का अनुसरण करने लगा। कुछ दिनों के बाद किसान की मृत्यु हो गई और उस किताब का प्रतिदिन अनुसरण करता था परंतु कृषि अपनी मनमानी से करने लगा।
धर्म दास जी अब बताओ की क्या वह एक सफल किसान बन पायेगा या नहीं?
धर्मदास जी कहते हैं कि इस तरह तो वह पूरी तरह से बर्बाद हो जायेगा क्योकि किसान ने कृषि के जो तरिके किताब में लिखे थे वह तो उसके विपरीत कार्य कर रहा जिससे फसल अच्छी नहीं होगी और खेतों में भी नुकसान होगा। वह तो सरासर मूर्खता का कार्य कर रहा है।
यह सुनकर कबीर साहब जो एक महात्मा के रूप में थे बीच में ही बोले कि धर्मदास आप भी तो उस किसान के पुत्र के समान मूर्खता का कार्य कर रहे हैं और फिर चाहते हैं कि आपको मुक्ति प्राप्त हो जाए जो कि कदापि संभव नहीं है।
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संत धर्मदास जी आश्चर्य से पूछते हैं कि हे महात्मन आप यह क्या कह रहे हैं? मैं कौन सा मूर्खता का कार्य कर रहा हूँ और मुझे मुक्ति क्यों प्राप्त नहीं हो सकती?
परमेश्वर कबीर साहब कहते हैं कि आप जिन मंत्रो का जाप करते हैं वे पवित्र गीता में ये कहाँ पर वर्णित हैं?
ये मंत्र जो आपके गुरुदेव ने आपको जाप करने के लिए प्रदान किये हैं क्या वे पवित्र गीता में श्री कृष्ण के अनुभव से परे नहीं हैं।
इससे तो यही साबित होता है कि आप भी उस किसान के पुत्र के समान हैं।
यह सुनकर धर्मदास जी क्रोधित हो उठे और कहने लगे कि मुझे लगता है आप के मुस्लमान फ़क़ीर हैं जो हमारे हिन्दुओं के ग्रन्थ में गलतियां निकल रहे हैं। आप हमारे ग्रन्थ से चिढ़ते हैं।
यह सुनकर फ़क़ीर रूपी कबीर साहेब कहते हैं कि धर्मदास जी यह सब मैं नहीं कह रहा हूँ और ना ही मैं आपके ग्रन्थ से चिढ़ता हूँ बल्कि मैं तो तुम्हे भक्ति का सच्चा मार्ग प्रदर्शित करने की कोशिश कर रहा हूँ। ये सब बातें तो आपके ग्रन्थ में अध्याय 16 के श्लोक 23 -24 वर्णित हैं भला इसे तो आप मना मत करो।

वहीँ धर्मदास जी मन ही मन मान रहे थे कि यह फ़क़ीर सही कह रहा है लेकिन उनका घमंड उन्हें यह मैंने की अनुमति प्रदान नहीं कर रहा था जिसके चलते उन्होंने कबीर साहब को कह दिया कि हे फ़क़ीर बाबा आप यहाँ से चले जाइये, अब मुझसे हमारे ग्रन्थ के बारे में और नहीं सुना जा रहा है।
कबीर साहब उत्तर में कहते हैं कि धर्मदास जी सच्चाई हमेशा कड़वी होती है। दवा भी तो कड़वी होती है लेकिन रोग मुक्त होने के लिए उस दवा का सेवन करना पड़ता है यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो रोग से मृत्यु हो जाएगी।
यह कहते ही कबीर साहेब वहां से अंतर्ध्यान हो गए।
कबीर साहब के अंतर्धयान होने के बाद धर्मदास जी सोच में पड़ गए कि ये कोई साधारण साधु नहीं थे इन्हे तो हिन्दू ग्रन्थ और वेदों का भी ज्ञान है और सोचने लगे की ये अवश्य ही कोई देव थे जिन्हे मैं पहचान नहीं सका।
मेरे गुरु रूपदास ने जो भक्ति का ज्ञान मुझे दिया था वह तो निश्चय ही व्यर्थ है जिसका उनके जीवन में कोई महत्व नहीं है। मेरी उम्र भी काफी यानि 60 वर्ष हो चुकी है और अब तो शायद ही उस फ़रिश्ते से मेरी मुलकात हो जिससे कि मैं भक्ति का सही मार्ग अपना सकूं और मोक्ष की प्राप्ति कर सकूं।
संत धर्मदास और कबीर साहब में दूसरी भेंट
अब संत धर्मदास जी ने भक्ति का वह मार्ग त्याग दिया था जैसे उनकी दिनचर्या शुरू होती थी उन्होंने वैसे नहीं किया और सुबह उठते ही भोजन पकने लगे। उन्होंने भोजन पकाने के लिए जिस लकड़ी का उपयोग किया था वह मोटी लकड़ी थी जो बीच से बिलकुल थोथी हो चुकी थी।
उस थोथी जगह पर बहुत सारी चीटियां थी। वह लकड़ी चूल्हे में आधी जल गई तो चीटियां लकड़ी से बाहर भागने लगी और लकड़ी से पीछे की तरफ तरल पदार्थ निकल रहा था जिससे चीटियां बहार नहीं निकल पा रही थी और आगे की तरफ आग जिससे चीटियां मर रही थी और यह देख धर्मदास जी ने वह लकड़ी बाहर निकल दी और उसे बुझा दिया।
अब धर्मदास जी की आत्मा उस पके हुए भोजन को ग्रहण करने के लिए अनुमति नहीं दे रही थी क्योकि उस भोजन को पकाने के लिए उसने जिस लकड़ी का उपयोग किया था उस लकड़ी में ना जाने कितनी चीटियों को मरना पड़ा।
अब धर्मदास जी ने सोचा कि मैं यह भोजन किसी महात्मा को खिलाऊंगा जिससे मेरा पाप कम हो जायेगा। इसी सोच के साथ संत धर्मदास जी ने स्नान किया और भोजन को थाली में लेकर साधु-महात्मा की खोज में निकल पड़ा।
जैसे ही कबीर साहेब ने देखा कि धर्मदास साधु के लिए भोजन परोसने के लिए आ रहे हैं तो वे एक साधु का रूप बनाकर एक वृक्ष के निचे बैठ गए।
संत धर्मदास की नजर कबीर साहब जो एक साधु के रूप में बैठे हुए थे, उन पर गई और उनके पास पहुंचे और कहने लगे, हे महात्मन मैं आपके लिए भोजन लेकर आया हूँ, कृपया आप इसे ग्रहण करें और मुझे आर्शीवाद दें।
यह सुनकर कबीर साहब ने धर्मदास की ओर देखा और कहने लगे कि लाओ धर्मदास बहुत ही भूख लगी है और जैसे ही धर्मदास ने भोजन की थाली कबीर साहब को दी तो उन्होंने उस थाली पर थोड़ा सा पानी छिड़का।
थाली में पानी के पड़ते ही भोजन चीटियों में परिवर्तित होने लगा और चीटियां अपने अंडे के साथ थाली से बाहर निकलने लगी।
यह देख धर्मदास जी आश्चर्यचकित हो गए और साधु की और देखने लगे तभी साधु के रूप से कबीर साहेब उसी महात्मा के रूप में आ गए और धर्मदास से कहने लगे कि हे धर्मदास तुम तो कह रहे थे कि तुम वैष्णव संत हो और किसी प्रकार की कोई जीव हिंसा नहीं करते यह क्या है आपने तो अपना भोजन बनाने के लिए सैंकड़ों-हज़ारों जीवों को मार दिया।
यह सुन धर्मदास ने महात्मा के पैरों को पकड़ लिया और उनसे क्षमा मांगने लगे और कहने लगे हे महात्मा मुझे भक्ति का सच्चा मार्ग बताएं क्योकि मैंने अब तक जो भी भक्ति की थी वो किसी काम की नहीं थी अब तो मेरे जीवन के अंत का भी कोई भरोसा नहीं है कृपया पथ प्रदर्शन करें। कृपया मुझ मुर्ख पर दया करें ताकि मैं मुक्ति प्राप्त कर सकूं। और इस प्रकार कबीर साहेब जी ने धर्मदास जी को अपनी शरण मे लिया।
संत धर्मदास जी की पत्नी को भी कबीर साहेब की शरण में लाना
संत धर्मदास जी की पत्नी का नाम आमनी देवी जी था। धर्मदास जी ने कबीर साहेब जी को अपना गुरु बनाने के बाद अपनी पत्नी आमनी देवी जी को भी अपने गुरु कबीर साहेब जी के बारे में बता कर उनको भी कबीर साहेब जी से नाम दीक्षा दिलवा थी। इस प्रकार धर्मदास जी ने अपने परिवार को परमात्मा की शरण ग्रहण करवाई।
Nice story